मज़हब भी खाएँ मिठाई त्यौहारों की एक दूसरे के घर,
हर-नफ़स हम एक हैं, तू मेरे घर मैं तेरे घर जीमने आऊँगा।
मोबाईल ने भाईचारे को डसा हैं, तू ग़म न कर,
हम बजाएँगे दफ़-ओ-चंग, इस होली मैं धमाल गाऊँगा।
मेरी रहगुज़र मिलता हैं गर कोई ग़ैर या रक़ीब,
रंगों से मुख शाद कर बाहें फैलाकर गले लगाऊँगा।
गत होली रोई थी फ़ुर्कतों की बेज़ार बस्ती में,
इस साल न हो ऐसा, मैं मोहब्बत के रंगों से क़ुर्बतें लाऊँगा।
इमसाल होली साक़ी भी होगा, मय भी, दिखेगा हुजूम भी,
खोल देना दरीचा, मैं आसमाँ से चाँदनी बरसाऊँगा।
धोलेंडी पर बैरंग हवा को भी रंगों का परिधान मिलें,
उछलेगा पानी मसर्रत से, मैं पानी का बदन रंगीं कर दूँगा।
जेबें मूठियाँ पिचकारी गुलाल के रंगों से भरकर तय्यार हूँ,
इतना बरसेगा रंग, इरादा हैं इंद्रधनुष को ज़मीं पर बिछाऊँगा।
बैठा मिल जाएँ राह पर मुँह सूजाएँ 'कर्मवीर' कोई,
इस होली शीरीं-ओ-रंग से उसका चेहरा खिलाऊँगा।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें