इसी को कहते हैं प्रेम (कविता)

पूरे-पूरे 'हाँ' के लिए
और पूरे-पूरे 'नहीं' के लिए
जब वे बहुत ज़ोर दे रहे होंगे
ठक-ठक बजती रात में

जब वे दिखा रहे होंगे
कोहरे में शव और
चिथड़े में शब्द

जब वे हँस रहे होंगे
हिंस्र पशु की
चीख़ जैसी बर्बर हँसी

तुम मुझे बहुत-बहुत
याद आओगी
जो 'हाँ' और 'नहीं' से बचकर
किसी सुनसान पहर में
भाग निकली थीं मेरे साथ

हठीले यक़ीन की तरह
बिना जाने हुए
कि इसी को कहते हैं प्रेम
इसी को...


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