जा रही हूँ छोड़ उपवन - कविता - श्वेता चौहान 'समेकन' (कविता)

जा रही हूँ छोड़ उपवन,
फिर कभी न आऊँगी।
लौटना असंभव मेरा अब,
हूँ तिरस्कृत बार-बार।
अब न मुझको बाँध सकेंगी,
प्रिय! तुम्हारे अश्रुओं कि जलधार।

राधिका-सा था प्रेम मेरा,
प्रिय! तुम्हारी रुक्मणि
भी की स्वीकार।
किस तरह अब दूँ मैं तुमको
प्रेम का अपने प्रमाण।

पूर्व तुमने ही कहा था
मुझको प्राण अपना।
बाद तुमने क्यों किया,
प्राण पर आघात इतना।
किस तरह दिखाऊँ मैं
है हृदय पर घाव कितना।

चाहते हो प्रिय तुम,
कोई आश भी न लगाऊँ मैं।
कामरस पिला तुमको,
रात लौट आऊँ मैं।
साथ चाहूँ जब तुम्हारा,
तुम मुझे धिक्कार दो।
जी करे दुलारों दो,
जी करे दुत्कार दो।

तितलियों से ऊब कर,
मृदुल मधु रस चूसकर।
थक-हार कर घर आओगे,
थामने को हाथ मेरा
हाय! बहुत पछताओगे।
चल रही है श्वास जब तक,
याद मुझको आओगे।
जा रही हूँ छोड़ उपवन,
फिर कभी न आऊँगी।
लौटना असंभव मेरा अब।
हूँ तिरस्कृत बार-बार।
अब न मुझको बाँध सकेंगी,
प्रिय! तुम्हारे अश्रुओं कि जलधार।


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