साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3561
नई दिल्ली, दिल्ली
1963
मकड़ी सिद्धहस्त है, ख़ुद जाल बनाने में। फिर तरकीब लगाती है, शिकार को फँसाने में। अपने रसायन से वो बेतोड़ जाल बुनती है। पकड़ने को कीड़े-मकौड़े अपने हुनर से चुनती है। इसी तरह आदमी भी श ग़ज़ब के जाल बुनता है। पर अफ़सोस, फँसाने हेतु आदमी को ही चुनता है।
अगली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें