जब मैं बोलता हूँ (कविता)

जब मैं बोलता हूँ
तो दरअसल बोलता कहाँ हूँ
अंदर ही अंदर ख़ौलता हूँ रह-रहकर
कहीं अपने को टटोलता हूँ
भीतर ही भीतर
उस भाषा में
जिसमें इस हत्यारी संस्कृति की समाई हो नहीं सकी

जब मैं बोलता हूँ...
तो दरअसल बोलता कहाँ हूँ—भीतर ही भीतर
कहीं अपने में घोलता हूँ
ज़हर में बुझा वह समय
जिसकी नाव पूँजी और बाज़ार के
चप्पुओं के गठजोड़ पर चल रही है

जब मैं बोलता हूँ
तो बोलता कहाँ हूँ—
तार-तार कर अपने को
बस अपने को
अपने में सोए हुए को
झँझोड़ता हूँ
जब-जब मैं बोलता हूँ!


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