जहाँ-दार पे वार चलने लगा (ग़ज़ल)

जहाँ-दार पे वार चलने लगा
ग़ुलामों का दरबार चलने लगा

अज़ल से किसी शय में गर्दिश न थी
चला मैं तो संसार चलने लगा

ख़ुदा रक्खे अमरीका-ओ-रूस को
मियाँ अपना अख़बार चलने लगा

तबस्सुम तकल्लुम जवाँ हो गए
मुबारक हो घर-बार चलने लगा

अभी धूप 'ख़ालिद' पे आई न थी
कि दीवार दीवार चलने लगा


रचनाकार : ख़ालिद महमूद
  • विषय : -  
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