मुझमें एक युग है
जो परेशान है।
मुझमें एक खंडित भूगोल है अखंड
जो रेगिस्तान है।
मुझमें सदियाँ हैं बेपर्द
तन पर पैबंद सिए हुए,
बिल्कुल वीरान।
मुझमें तुम सब हो
एकाकी, भ्रमित-मन, बेहद थके हुए।
यहीं कहीं रोज़ सुलगता
है—मुझी में—अपना—
तुम सबका—मसान।
कमलकीच में फँसी
मेरी आँखों का उपमान
सुनसान है
इनमें मुर्दा लोग जीवित होते रहते हैं।
नदियाँ सूखती रहती हैं
पहाड़ बनते रहते हैं
पुलों के कंकाल ध्वस्त होते रहते हैं
पापों की भीड़ गाती रहती है
पुण्य की अर्थियाँ जला करती हैं...
लेकिन मैं पापों का प्यार नहीं हूँ
पुण्य का विकार भी नहीं हूँ
मैं किसी अधूरे जन्म का स्वीकार नहीं हूँ।
मैं हूँ भविष्य का अधूरा ज्ञान,
इस अँधियारे शून्य में बाँहें फैलाए
मौत के भयानक, काले, मेहराबी जबड़े से गुज़रता
चुपचाप उजाले के चिथड़े बीन रहा हूँ।
मैं निर्जन, एकाकी सार्वभौम भाषा हूँ।

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