जीने में थी न नज़अ के रंज ओ मेहन में थी (ग़ज़ल)

जीने में थी न नज़अ के रंज ओ मेहन में थी
आशिक़ की एक बात जो दीवाना-पन में थी

सादा वरक़ था बाहमा गुल-हा-ए-रंग-रंग
तफ़्सीर जान पाक बयाज़-ए-कफ़न में थी

बढ़ता था और ज़ौक़-ए-तलब बेकसी के साथ
कुछ दिलकशी अजीब नवाह-ए-वतन में थी

बीमार जब हैं करते हैं फ़रियाद चारागर
क्या दास्तान-ए-दर्द सुकूत-ए-महन में थी

कहता था चश्म-ए-शौक़ से वो आफ़्ताब-ए-हुस्न
हल्की सी इक शुआ थी जो अंजुमन में थी

कुछ इज़्तिराब-ए-इश्क़ का आलम न पूछिए
बिजली तड़प रही थी कि जान इस बदन में थी

किस से कहूँ कि थी वही गुल-हा-ए-रंग-रंग
बिखरी हुई जो ख़ाक सवाद-ए-चमन में थी


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