जीवन का पतझड़ (कविता)

जीवन कब रंग बदल ले
कब ख़ुशियाँ ग़म में बदल दे
समय का पहिया कब उल्टा घूम जाए
जो न चाहो ऐसा कुछ हो जाए
हँसती-खेलती ज़िंदगी क्यों वीरान हो जाती है
क्यों भीड़भाड़ वाली राह सुनसान हो जाती है
एक अंग सा कट गया हो तन से
यह ख़याल जाता ही नहीं मन से
यादों के रास्ते भी पथरीले हो गए हैं
दिल से दिल के तार ढीले हो गए हैं
सुबह की अलसाई धूप अब नहीं सुहाती
चिड़ियों की कलरव अब नहीं लुभाती
फूलों से ख़ुशबू खो सी गई है
जब से ज़िंदगी मेरी मुझसे दूर हो गई है
सूरज की लाली में वो लालिमा न रही
वसुधा की हरियाली में हरीतिमा न रही
क्यों वसंत भी पतझड़ लगने लगा है
शायद कोई दूर हो गया जो अपना सगा है
अब तो बेचैनियों में मन रमने लगा है
ऐ मेरे रब अब तो तू भी हो गया बेवफ़ा है
जो कुछ चल रहा है जीवन में मेरे
बतलाओ क्या यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है।


लेखन तिथि : 19 जनवरी, 2022
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