जिस शहर गए (कविता)

जिस शहर गए स्टेशन पर मिला
पुराना शहर
हमें मिलने को आतुर

हमारे धोखे
स्वप्न
रातें
घातें
उसकी जेबों में खनखना रही थीं

गले लग उसने कहा
क्या तर्पण करने आए हो

हमने कहा
जो हमारा शहर छोड़ लौटे नहीं
उनकी अस्थियाँ अगर मिल जाएँ
धन्य हो जीवन

उसने कहा अस्थियों से धन्य होता जीवन
कहाँ संभव
तुम ख़ुद को देखो
तुम्हारी भटकन बताती है
प्रत्येक प्रवाह तट पर त्याग जाता है
आख़िर तुम्हें अपनी अस्थियाँ ख़ुद ही लानी पड़ीं

यार्ड में रेल यूँ धोई जा रही थी
जैसे किसी की अंतिम क्रिया में शामिल हो
लौटी हो घर की दहलीज़ पर


रचनाकार : अनिरुद्ध उमट
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