जिया ही नहीं (कविता)

ज़िंदगी में बहुत कुछ मिल सकता था,
लिया ही नहीं!
चाहता था खुल कर जीऊँ, पर जिया ही नहीं।
घुट-घुट कर जीता रहा, इच्छाओं को दबा के।
कोई मिला ही नहीं, जो दो बोल बोले;
प्यार से आ के।
उलझने आती रही, पद डगमगाते रहे।
कोई मिलता रहा, कोई जाते रहे।
अजीब सी बेचैनी सताती रही,
चाहता दूर भागना, वो आती रही।
एक आशंका; एक तड़प; एक बेचैनी,
बिन इसके कोई घूँट पीया ही नहीं।
चाहता था खुल कर जीऊँ,
पर, कभी जिया ही नहीं।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 30 नवम्बर 2023
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