ज़िंदगी में बहुत कुछ मिल सकता था,
लिया ही नहीं!
चाहता था खुल कर जीऊँ, पर जिया ही नहीं।
घुट-घुट कर जीता रहा, इच्छाओं को दबा के।
कोई मिला ही नहीं, जो दो बोल बोले;
प्यार से आ के।
उलझने आती रही, पद डगमगाते रहे।
कोई मिलता रहा, कोई जाते रहे।
अजीब सी बेचैनी सताती रही,
चाहता दूर भागना, वो आती रही।
एक आशंका; एक तड़प; एक बेचैनी,
बिन इसके कोई घूँट पीया ही नहीं।
चाहता था खुल कर जीऊँ,
पर, कभी जिया ही नहीं।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें