काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं (ग़ज़ल)

काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं,
और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं।

आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अज़्मत,
हम चराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं।

हम पे हाकिम का कोई हुक्म नहीं चलता है,
हम क़लंदर हैं शहंशाह लक़ब करते हैं।

देखिए जिस को उसे धुन है मसीहाई की,
आज कल शहर के बीमार मतब करते हैं।

ख़ुद को पत्थर सा बना रक्खा है कुछ लोगों ने,
बोल सकते हैं मगर बात ही कब करते हैं।

एक इक पल को किताबों की तरह पढ़ने लगे,
उम्र भर जो न किया हम ने वो अब करते हैं।


रचनाकार : राहत इन्दौरी
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