सिंधु नित अनंत उर्मिजाल डालता,
छाँह ही मिली, न प्राप्य इंदु की कला!
प्रेम की तृषा न प्रेम प्राप्त कर सकी,
हृदय भी सदैव रत्न-दीप सा जला!
कामना-निकुंज बीच विरह कोकिला
गा रही अनंत काल गीतिमालिका!
पुष्प पर तुषारविंदु, अश्रुधर कपोल,
प्राण-प्रत्र पर लिखी उदास तालिका!
चाह और आह से न मुक्त मानुषी,
पूर्णकाम पद्मधाम चेतना कहाँ?
ले चलो मुझे, प्रवाह, पार ले चलो—
पिंड-प्राण-युक्त दुख-अयुक्त हों जहाँ!