बिन किए, बिन कहे
बँट गई है कथा
तुम्हारी और हमारी।
नमी के शोषांत तक
बच जाती है एक नन्हीं बूँद।
कहाँ तक जाएँगे हम
दलदल की यात्रा में,
प्यार के नाम का तिनका
लाठी की तरह टेकते हुए,
काँपते विश्वासों के साथ
किनारों को कैसे थाम सकेंगे?
कभी सोचा है तुमने?
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