कल अचानक गुनगुनाते चीड़-वन जलने लगे
और उनके पाँव से लिपटी नदी बहती रही।
है नदी के पास भी अपनी सुलगती पीर है,
दोपहर की धूप में जलते पड़ावों पर
आग झरते जंगलों की गोद में तक़दीर है।
कौन सुनता है किसी का दर्द इस माहौल में
पर नदी कल-कल विकल अपनी कथा कहती रही।
धूप के अपने कथानक भी यहाँ पर हैं बड़े,
क्या करें सब विवश होकर थरथराते बाँचते
ये सुहाने वृक्ष ऊँचे पर्वतों पर जो खड़े।
क्षीण-काया अग्निवीणा पर छिड़े संगीत का
मीड़ थर-थर काँपती सहती रही,
और फिर भी यह नदी बहती रही।
कल अचानक गुनगुनाते चीड़-वन जलने लगे
और उनके पाँव से लिपटी नदी बहती रही।
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