कम्बल (कविता)

सर्द के दरमियाँ ये जो कम्बल है,
ये तो शीत इलाक़ों का सम्बल है।
उफ़ ये ठिठुरती फ़िज़ाएँ!
कंपकपाती सर्द घटाएँ!
कहीं बारिश, कोरोना, बर्फ़गोले,
लगता है फिर से रूठे हैं भोले।
निर्धन जन तो बस यूँ ही,
अनवरत टकटकी लगाकर,
ठिठुरती सदा को हलक में छुपाकर,
देखते भीगते आसमाँ को,
बस यूँ ही निरता-निरता कर,
ठिठुरन में धूप की उम्मीद जगाकर।
और फिर ओढ़ लेते ख़ामोशी की
मैली कुचैली फटी चादर को
अपना कम्बल मानकर।
जीर्ण शीर्ण काया को,
उसी अपने, कम्बल से लिपटाकर,
लरज़ते होठों और पथराते कपोलों को सिमटाकर,
मन ही मन कहते एक अनकही
अनसुनी गुहार लगाकर,
हे सूर्य देव! हे अग्नि देव!
प्रभु दया दृग खोलो।
कम्बल में अब ऊष्मा नहीं,
पतीले में अब दाना नही।
भेज दो किसी अमीर को,
भूख और शीतलता हरने,
कम्बल, कैमरा व चावल के साथ।
उसे शोहरत नसीब हो,
और मुझे थोड़ा जीवन।
या प्रभु! स्वयं बिखर जाओ,
ढक लो धरा को ऊष्मा बनकर,
एक प्राकृतिक अमूल्य कम्बल से,
हर लो यातनाएँ अटूट सम्बल से।


लेखन तिथि : 18 जनवरी, 2022
यह पृष्ठ 240 बार देखा गया है
×


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें