कौन हो तुम, कामिनी?
अचल हिम-गिरि-शिखर-सी,
चंचला सौदामिनी?
कौन हो तुम, कामिनी?
प्रतीक्षा ऐसी कि लोचन देख पथ
पथरा गए,
बिखरने बिखरी लटों पर मेघ भी
मँडरा गए :
यों बुलाकर पास होतीं दूर क्यों,
ध्रुवस्वामिनी?
कौन हो तुम, कामिनी?
हो नहीं हो? क्यों मुझे इस भेद में
भरमा रहीं?
कर सलज संकेत फिर निर्मोह को
शरमा रही?
दे रही उन्माद क्यों दिन-दिन मुझे,
उन्मादिनी!
कौन हो तुम, कामिनी?
माँगती तुम कुछ नहीं तो चाहतीं
सर्वस्व क्यों?
बुद्धि का तेजस्व लेतीं, व्यक्ति का
वर्चस्व क्यों?
तुम न बनती भोर, तुम रहतीं
नहीं बन यामिनी,
कौन हो तुम, कामिनी?
लय निहित जैसे प्रलय में, रहो
मेरे हृदय में!
वास करता सत्य जैसे शून्य नभ के
निलय में!
लीला करो अभिनव, प्रिये,
प्रतियाम अंतर्यामिनी
कौन हो तुम कामिनी?
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