सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के लिए
ऐसे ही छपते रहे अख़बार
बच्चे खेलते रहे
शोक-सभा होती रही
तुम नहीं थे वहाँ
नाटक देखती रहीं लड़कियाँ
कविता पढ़ते रहे प्रेमी
बसें भरी थीं
सड़कें लबालब थीं शोर से
कला प्रदर्शनी ख़ाली थी
चौराहे पर रुकी थीं गाड़ियाँ
कहीं कुछ नहीं रुका
आलोचक करते रहे विवाद
नृत्योत्सव में ख़ाली थी
आगे की एक सीट
वही थी गति
ताल लय
जीवन की
स्वप्न सुंदरी
नाच रही थी और भी अच्छा।
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