कविता-पाठ (कविता)

मैं एक ऐसी जगह गया
जो अपने लठैतों
मोहभंग से ग्रस्त फ़रिश्तों
और बेरोज़गार अर्द्धकवियों के लिए
मशहूर थी

शाम का समय था
मेरे स्वागत में भी जलाकर लट्टू

एक-एक करके श्रोता आए मैं उनका
परिचय प्राप्त करता रहा वे अपने नाम और काम
बताते थे मैं जो कभी याद नहीं रख पाऊँगा
छात्र क्लर्क कुछ मास्टर लोग कई एक और
एक उनमें डाकिया भी था एक पानवाला
पनवाड़ी बड़ा कमबख़्त था पितृभाव से
मुस्कुराता था और
स्वरचित काव्य की बानगी देता था

मैंने देखीं कुछ वृद्ध महिलाएँ
कुछ लड़कियाँ जो महज़ किशोरियाँ थीं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ पट्टे भी

आ निकले हाथ जोड़कर विनयपूर्वक किया
उन्होंने मुझे नमस्कार—हे ईश्वर कैसे होगा
इस प्रांत में कविता का उद्धार

खट्-खट् करती अंत में आईं
नगर प्रशासक की पत्नी
कार्यक्रम शुरू कराने
(हाल ही में मैंने अख़बार में देखा
वह इस दुनिया में नहीं रहीं
छोटी-सी ख़बर थी, कारण पता नहीं)

मुझसे पहले आए
सप्तकीय एक बुज़ुर्गवार
अवकाशप्राप्ति के बाद से
ज़रा बह निकलने और गाने लगे थे
कविता सुनाते हुए एकाध बार मेरी ओर
ममत्व से देख लेते थे

फिर मुझे बुलाया गया और
मैं पढ़ने लगा एक लंबी अटपटी-सी कविता
जिसमें कहा गया था ׃

“चिंताएँ
मेरी नाक को ख़ून से भर देंगी
चिंताएँ अचानक मेरे बनियान में
सूराख़ कर डालेंगी
मैं चिंता करूँगा और मेरी जेबें
घबराहट से भर जाएँगी
मैं चिंता करूँगा और गाजर का रस

किसी तरह गले से उतारकर
फिर यहीं लौट आऊँगा...”

और यह कि :

“कई बार मुझे लगता है
मैंने खा लिया है अपना संसार
और अब मैं कहाँ से लाऊँगा
ऐसा संसार!”

एक सभ्य ख़ामोशी से मुझे दुलारा गया
और कार्यक्रम को अंत की ओर लाया गया

पछताए श्रोतागण और अर्द्धकवि, कवि पछताया
इतना पछताया कि विवाहित एक प्रौढ़ा को उस पर
प्यार आया।


रचनाकार : असद ज़ैदी
यह पृष्ठ 137 बार देखा गया है
×

अगली रचना

सुबह की दुआ


पिछली रचना

ख़ामोशी और हँसी
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें