हर सुबह!
एक ख़ामोश ज़िन्दगी लेकर आती है।
जिसे न जीने की चाह होती है;
न खोने का अफ़सोस।
चेहरे पर,
एक झूठी मुस्कुराहट टाॅंगे;
दिन बीत जाता है।
और रात
सिसकियों के बीच खो जाती है।
एक घना अँधेरा!
दूर-दूर तक नज़र आता है।
जहाँ प्रारब्ध–
औंधे मुॅंह पड़ा;
देखता है अतीत को।
सपने पतझड़ के पत्तों-सा
बिखर जाते हैं।
जिसे समय!
अपने भारी पाॅंव से कुचल डालता है।
एहसास होता है,
उसके होने का।
पर, फ़र्क़ नहीं पड़ता!
उसके पाने या खोने का।
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