ख़ामोशी और हँसी (कविता)

किस क़िस्म का जीवन तुमने जिया बड़ी आपा ने पूछा
बड़ी आपा बहुत अच्छा-सा जीवन

ख़ुशबूदार बुरादा खाया चटपटा ज्ञान लिया दूकानों से
जूते घिसे और हाज़मा घटाया
एक दिन दो लड़कों और तीन लड़कियों के साथ
चाय पीता बैठा था कि सवाल हुआ असद साहब
आप जैसे लोग इस दुनिया में गुज़ारा कैसे कर लेते हैं
मैंने कहा—ख़ामोश!

इस ख़ामोशी में मुझे कोई दुविधा भी नहीं होती थी
मसलन प्लाज़ा में शोले देखकर
मैं भला दुविधाग्रस्त कैसे होता!

एक ख़ामोश झील की तरह मैं रहना चाहता था
इसका एक ही रास्ता था—भूमिगत पड़े रहना
ख़ामोशी की ज़द में
नगरों की चीख़ जहाँ मुझे हिला नहीं सकती थी
होटलों से भरे शहरों में लेकिन मैं ख़ुद जब
हँसता था अपवादस्वरूप
तो अंदर से काँपता रहता था
कभी-कभार ख़ामोश झील के तल पर पानी
थरथराता था जब
मैं डर जाता था

डर मिटाने के लिए जेबों में हाथ डालकर
बाज़ारों की तरफ़ निकल पड़ता था
वहाँ पता चलता था कि विज्ञान तरक़्क़ी कर रहा है
मगर ऐसी ख़बरें भी सुनाई पड़ती थीं कि ध्यान दो
तो बुख़ार चढ़ आए और कान बजने लगें

सड़कों पर मुझे अत्याचारियों से अधिक
भद्रलोक का सामना करना पड़ा
यों उबाल के दिनों में सज-सँवरकर उन्हीं के साथ
विरोध में चतुराई का समावेश करते हुए
मुझे भी निकलना पड़ा

अच्छी नस्ल के लोगों की सोहबत में मैं बैठा साँस रोककर
मैं उनकी नस्लों को और नहीं सुधार सकता था
सहानुभूतिपूर्वक वे मुझे देखते थे उठाना चाहते थे
वे बोले, चाय पियो!
उन्होंने सोचा होगा फ़िलहाल इतना ही काफ़ी है

यों शुरुआत हुई आधे मन से
आगे चलकर उन्होंने कई तरीक़े बताए
मेरी समस्या यह थी कि कैसे उन पर
अपनी दुविधा ज़ाहिर करूँ

एक ख़ास तरह की रक्षात्मक हँसी मैंने अख़्तियार कर ली
मैं जब इस तरह हँसता था
तो दरअसल अपने-आपसे भी बहुत नाराज़ होता था
उन्होंने देखी यह हँसी और मेरा आधा मन
और वे मुझसे निराश होने लगे

उसी हँसी को लेकर मैं खड़ा हूँ तुम्हारे सामने
लो, मैं हँसकर दिखलाता हूँ
उसके बाद मैं ख़ामोश होकर दिखाऊँगा
इससे तुम्हें पता चलेगा कि मैंने
किस तरह का जीवन व्यतीत किया है शहरों में।


रचनाकार : असद ज़ैदी
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