ख़ामोश है ख़ामोशियाँ
तन्हा हैं तन्हाइयाँ।
ये कैसी लाचारगी है
कि ख़ामोश तन्हाइयों की
ख़ामोशी नहीं टूटती,
तन्हाइयों की ख़ामोशी
तनिक करवट नहीं बदलती।
न हैरानी, न परेशानी, न बेचैनी
निस्पृह भाव से दोनों मौन है,
अपनी अपनी हालत में भी
दिखते रहते मगन हैं।
जिन्हें पढ़ना आसान नहीं है
ख़ामोश तन्हाइयों में कभी भी
घुलना मिलना कठिन है।
मगर...
सीख जाएँ यदि हम आप
ख़ामोश तन्हाइयों से दोस्ती करना
तो विश्वास मानिए
इनसे बेहतर कोई हमदर्द नहीं है,
इनसे ईमानदार कोई मित्र नहीं है।
क्योंकि ख़ामोशियाँ आपको
सँभलने का तो तन्हाइयाँ
अपने आप को पढ़ने समझने ही नहीं
चिंतन का सुनहरा अवसर भी देती हैंं,
दोनों कुछ न कुछ हमें देती हैं।
शर्त इतनी भर है कि
कुछ ले सकें हम इनसे तो
ये हँसी ख़ुशी देकर हमसे
स्वतः दूर हो जाती हैं।
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