खेत का दृश्य (कविता)

आसमान की ओढ़नी ओढ़े,
धानी पहने
फ़सल घँघरिया,
राधा बन कर धरती नाची,
नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया।
माती थाप हवा की पड़ती,
पेड़ों की बज
रही ढुलकिया,
जी भर फाग पखेरू गाते,
ढरकी रस की
राग-गगरिया!
मैंने ऐसा दृश्य निहारा,
मेरी रही न
मुझे ख़बरिया,
खेतों के नर्तन-उत्सव में,
भूला तन-मन
गेह-डगरिया।


यह पृष्ठ 486 बार देखा गया है
×

अगली रचना

धूप


पिछली रचना

न बुझी आग की गाँठ
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें