खोया बचपन (कविता)

आ लौट चलें बचपन की ओर,
जहाँ नहीं था ख़ुशियों का छोर।
दिन-रात खेलकूद की ख़ुमारी,
पढ़ाई कम और मस्ती पर जोर।

वह ग्रीष्मावकाश होते थे वरदान,
कड़ी धूप गर्मी न करती परेशान।
लू अंधड़ कब किसे थी सताती,
बस नजर आता खेल का मैदान।

सड़कों पर गिल्ली डंडा खेल चले,
गिट्टी फोड़ का बड़ा हुड़दंग मिले।
दौड़ते कूदते गिरते पड़ते बच्चों के
थके लाल चेहरे भी रहते थे खिले।

पूरी शाम बैडमिंटन का चले खेल,
छोटे बच्चों की छुक-छुक चले रेल।
कबड्डी के मैदान में वह बनाते पाले,
रहते साँस साधे होती धक्कम पेल।

रस्सी कूदें खो-खो खेलें सब मिल,
मोहल्ला किक्रेट जीत लेता दिल।
भले करें आपस में बहस लड़ाई,
सब कँचे गुटके में थे बड़े क़ाबिल।

पूरे मोहल्ले के बच्चों की बने टीम,
कोई पतलू या मोटू कोई था भीम।
चिढ़ते चिढ़ाते प्यार से खेलते सब,
लगे ऐसा हवा में घुली हो अफीम।

साथ में जीने की कला आ जाती,
क्षमा करने की मनोवृत्ति जगाती।
आपस में कभी वैर वैमनस्य नहीं,
शारीरिक मानसिक ऊर्जा बढ़ाती।

अब वह सुन्दर बचपन खो गया,
बच्चों के लिए अब स्वप्न हो गया।
उनके खेल अब चारदिवारी अंदर,
टीवी, फोन व प्ले स्टेशन रह गया।

कोई लौटा दो फिर से वह बचपन,
बच्चों को उनका मोहक भोलापन।
फिर दिला दो उन्हे खेलों के मैदान,
पूर्ण विकसित हो उनका बालपन।।


रचनाकार : सीमा 'वर्णिका'
लेखन तिथि : 11 नवम्बर, 2021
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