ख़्वाहिशें (कविता)

अंतहीन होती ख़्वाहिशें,
अनकही दबी फ़रमाइशें।
काश समझता दर्द कोई,
झूठी हँसी की नुमाइशें।

कलेजे में धँसा तीर सा,
आँखों में दिखता पीर सा।
मन सोचता रहता हरदम,
जीवन क्यों संत फ़क़ीर सा।

वह रंगीन ख़्वाबों की रात,
यौवन के नाज़ुक जज़्बात।
किरका किरका बिखरे सभी,
झूठे निकले सब ख़यालात।

सपनों में रंग भरे कौन,
क्यों टूटने पर धरे मौन।
अरमान रह गए अधूरे,
कोई तो है दिल का सौन।।


रचनाकार : सीमा 'वर्णिका'
लेखन तिथि : 7 सितम्बर, 2021
यह पृष्ठ 152 बार देखा गया है
×

अगली रचना

द्रोपदी का चीर हरण


पिछली रचना

हिन्दी भाषा: दशा और दिशा
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें