किनारा (कविता)

मैं स्तब्ध हूँ
या मौन हूँ
समझ नहीं आता कौन हूँ?

जब अपनी ही जड़े उखड़ने लगे
भेदभाव बढ़ने लगे
होके, चुपचाप
खड़ी हो सकतीं हूँ, भला
मेरी बनाई लकीरे जब टूटने लगे
नदियों का किनारा तोड़ के लहरें आगे बढ़ने लगे
सब कुछ अंत के कगार पर हो
तो खो सकती हूँ, मैं भला
सारी जड़े हिलने लगे
अस्तित्व मेरा बिखरने लगे
छोड़ के बंधन सभी क्या किनारा ले सकतीं हूँ, भला
सम्भव नहीं एकदम जड़ हो जाना
भूल के अपनो को कहीं खो जाना,
मैं लघु मानव सी
तुम रीवा के पहाड़ हो
मेल सम्भव हैं नहीं
इसलिए हम जलधार हें।

बहता था तो पानी था
अब दिखता कुछ नहीं
ना उस तरफ़ कोई धारा है
ना कोई रुख ही सम्भव था
कि सूख गई होगी जलधारा
लेकिन स्तब्ध हूँ कि दिखते नहीं निशान अब।

मैं प्रथम छोर हूँ
तुम अंत हो मेरे किनारो का,
तुम अंत हो मेरे किनारों का।


लेखन तिथि : 2022
यह पृष्ठ 187 बार देखा गया है
×
आगे रचना नहीं है


पिछली रचना

गुरु
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें