क्या तुम नहीं जानते (कविता)

क्या तुम नहीं जानते
पर्वतों के पीर को,
व्याकुल संसार के
संपन्न तस्वीर को।

क्या तुम नहीं जानते
जलती हवा के शरीर को,
जो दौड़ रहा है गाड़ियों के
पीछे पाने अपने तक़दीर को।

क्या तुम नहीं जानते
पानी कि ग़रीबी को,
जो माँग रहा साफ़ कपड़ा
मिटाने तन की फ़क़ीरों को।

क्या तुम नहीं जानते
आसमान के काले रंग को,
जो ढूँढ़ रहा है नीला सूरज
बुला रहा है अपने पतंग को।

क्या तुम नहीं जानते
कमज़ोरी से कापते शरीर को,
शुद्ध अनाज और अशुद्ध अनाज
के बीच मिटाना चाहता लकीर को।


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