लफ़्ज़ फिसला तिरे होंटों से हवा में उतरा (ग़ज़ल)

लफ़्ज़ फिसला तिरे होंटों से हवा में उतरा
मेरा इल्हाम था जो तेरी सदा में उतरा

नेक बंदों के लिए देर थी बस रोने में
फिर तो जो मैं ने कहा उन की रज़ा में उतरा

सीढ़ियों से थे जो वाक़िफ़ वही घर तक पहुँचे
मैं तो वो शख़्स था जो सीधा हवा में उतरा

ख़ुश था जब घर में वो मेहमाँ की तरह बैठा था
एक दीवार जो फाँदी तो ख़ला में उतरा

मुख़्तसर कितना था उस नन्हे परिंदे का सफ़र
सुरमई आँख से जो दस्त-ए-दुआ' में उतरा

तू भी बे-घर हुआ और और मैं ने भी दुनिया छोड़ी
कौन सा ज़हर हमारे कफ़-ए-पा में उतरा

'ज़ाहिद' इस बार तो बारिश ने रुलाया इतना
दर्द का इन्द्र-धनुष ग़म के ख़ला में उतरा


रचनाकार : ज़ाहिद अबरोल
  • विषय : -  
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