लक्ष्य-वेध (कविता)

आँखें लीं मींच
और खींच ली कमान
और छोड़ दिया शब्द-वेधी बाण
लक्ष्य बिंध गया।
ओ रे ओ अहेरी!
दृष्टि आभ्यंतर तेरी
कैसे इस अदृष्ट बिंदु
इस लक्ष्य पर पड़ गई?
मात्र एक क्षण को कुछ सिहरन हुई थी
ध्वनि झंकृत हुई थी उसी क्षण की
मर्म-थल में
तक कर उसे ही तू ने
तन कर जतन से
कान तक तान एक तीक्ष्ण तीर
छोड़ दिया
अब इस लक्ष्य वेदना के निरुवारन का
कोई तो सुगम उपचार समझाता जा,
अथवा इसे झेलने का
सहज सह जाने का
ओ रे दुर्निवार!
कोई भेद ही बताता जा!


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