लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या?
जो बोले, पर मौन रहे।
जो जल जैसा हो थिर-थिर,
पर भीतर ही भीतर बहे।
जिसमें रूप न कोई दिखे,
ना कोई स्पष्ट रेखा।
जो स्मृति की परछाईं-सा,
बस मन में ही हो देखा।
लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या?
जो टूटी हुई सी बात हो।
जो पंछी-सी उड़ती रहे,
पर बाँधों से नात हो।
जो आँखों में रह-रह कर,
नमकीन धुँध बन जाए।
जो धड़कन में बोले चुपचाप,
और शब्दों से कतराए।
लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या?
जो हर मन की पीड़ा हो।
जो जीवन का चुप किनारा,
और भीतर की क्रीड़ा हो।
ना उसमें आलंकारिकता,
ना छंदों का कोई संग।
बस दिल से उठती एक साँस,
और आत्मा की तरंग।
तो जब तक तुम पढ़ो इसे,
यह प्रश्न सदा रहेगा।
लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या?
और उत्तर... मौन ही देगा।
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