मानवीय प्रदूषण (कविता)

आँखों को वह अब नोच रहा,
मानव! अब भी क्या सोच रहा?
तेरे ही हठ का कारण यह,
है ख़तरनाक उच्चारण यह।
वह कलयुग का खर दूषण है,
मानव! वह 'महा प्रदूषण' है।
क्यों काट दिए तूने जंगल?
तू फ़तेह कर रहा है मंगल।
पर पृथ्वी को तू जला रहा,
सपनों की नगरी सजा रहा।
गर नहीं रहेगा आगे तू,
फिर सजा रहा है नगरी क्यूँ?
हर जगह प्रदूषण छाया है,
ये मानव की ही माया है।
पहले क्यूँ ना संकोच किया?
अब आँखों को तेरी नोंच लिया।
अब श्वास मिल रही ज़हरीली,
जीवन की सड़कें पथरीली।
कहते हैं 'जल ही जीवन है',
जल से जीवन में उपवन है।
पर जल भी आज प्रदूषित है,
ये ज़हर हर जगह भूषित है।
मानव पेड़ों को काट रहा,
वह ज़हर हर जगह बाँट रहा।
फिर कहते हैं 'मानव महान',
जय मानव और जय विज्ञान।
पर दोनों प्रकृति के दुश्मन,
अब झुलस रहा जीवन उपवन।
अब इसका कोई उपाय कहो,
जिससे प्रकृति दूषित ना हो।
यदि मानव लाए सुव्यवहार,
कर सकता सबका उद्धार।


लेखन तिथि : 2023
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