मधुशाला (कविता)

मेरे अंदर भी है एक मधुशाला,
ख़्याल मेरे बने हैं साक़ीबाला।
जज़्बात समंदर लेता हिलोरे,
कलम परोसे काग़ज़ पर हाला।

लम्हे जो आज बने साक़ी हैं,
ज़िंदगी में वही रहते बाक़ी हैं।
तसव्वुर में है ठिकाना उनका,
जग में यूँ तो सब एकाकी हैं।

नशे की आदत सी पड़ जाती,
दिनोंदिन यह बढ़ती ही जाती।
मिले नहीं कभी चैन पल-भर ,
लगे हर राह मयकदे को जाती।

दिमाग़ में बसा एक जुनून सा,
मिलता उससे एक सुकून सा।
हालत हुई आदी शराबी सी,
मय के लिए दिल ममनून सा।।


रचनाकार : सीमा 'वर्णिका'
लेखन तिथि : 29 सितम्बर, 2021
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