मैं अभी तक भी नदी हूँ (नवगीत)

मैं अभी तक भी नदी हूँ

धूप ने मुझको जलाया
धूल फेंकी आँधियों ने
कूल ने आँखें तरेरीं
आग दी भरकर दियों ने

चीर, खिंचकर भी बढ़ा है
कृष्ण तुम, मैं द्रौपदी हूँ!
मैं अभी तक भी नदी हूँ।

रोकने को गति पगों की
सामने अवरोध आए
क्रोध आए, बोध आए
सैकड़ों प्रतिशोध आए

मैं निरंतर ही चली यूँ—
मैं युगों की त्रासदी हूँ।
मैं अभी तक भी नदी हूँ।


रचनाकार : कुँअर बेचैन
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