मैं गीत गाना चाहता हूँ (कविता)

मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था

हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फ़सल हमारी है और हमने ही
उसे जोत-कोड़ कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है
हमने हाथ जोड़े, गुहार की
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे
कि फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए

हमें गुरिल्ले और छापामार तरीक़े ख़ूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाये
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं
और जब हम उनकी सबसे बड़ी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका बियाह पिछ्ले ही पूर्णिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पड़ा

यह टूटता हुआ समय है
पुरखों की आत्माएँ
देवताओं की शक्ति क्षीण होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था
लेकिन हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए

मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फ़सलों को देख रहा हूँ
फ़सलें रौंदी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है
बच्चे और औरतें
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही हैं
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चों और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में
इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे
उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं
उसकी टहनियों में लौटते पंछियों को
घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिए बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर
पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
जिसने नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते

मैं एक बूढ़ा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है
और उम्मीद हर हमले में
मैं एक आख़िरी गीत
अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ।


रचनाकार : अनुज लुगुन
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