मैं कलम हूँ न्याय की (कविता)

मैं कलम हूँ न्याय की,
मैं न्याय लिखना जानती।
मैं सत्यता को पूजती,
निज सत्यता को मानती।

न ज्ञात मुझको धर्म क्या,
न ज्ञात जाति की झलक।
न ज्ञात मुझको राजनीति,
न ज्ञात भ्रांति की अलख।

मैं शोषितों की ही सदा,
आवाज़ दिखना जानती।
मैं कलम हूँ न्याय की,
मैं न्याय लिखना जानती।

न डर मुझे है शोर का,
न डर मुझे ललकार का।
हूँ मैं शिष्या सत्यता की,
न डर मुझे निज हार का।

फ़र्श से उस अर्श तक,
मैं सफ़र करना जानती।
मैं कलम हूँ न्याय की,
मैं न्याय लिखना जानती।

न डर मुझे है अंत का,
न डर मुझे है ज़बान का।
न डर मुझे है दर्द का,
न डर मुझे है बयान का।

चल सत्यता की राह पर,
इतिहास लिखना जानती।
मैं कलम हूँ न्याय की,
मैं न्याय लिखना जानती।


लेखन तिथि : 10 मई, 2022
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