मैं ज़िंदगी का नक़्शा तरतीब दे रहा हूँ (ग़ज़ल)

मैं ज़िंदगी का नक़्शा तरतीब दे रहा हूँ
फिर इक जदीद ख़ाका तरतीब दे रहा हूँ

हर साज़ का तरन्नुम यकसानियत-नुमा है
इक ताज़ा-कार नग़्मा तरतीब दे रहा हूँ

जिस में तिरी तजल्ली ख़ुद आ के जा-गुज़ीं हो
दिल में इक ऐसा गोशा तरतीब दे रहा हूँ

लम्हों के सिलसिले में जीता रहा हूँ लेकिन
मैं अपना ख़ास लम्हा तरतीब दे रहा हूँ

कितने अजीब क़िस्से लिक्खे गए अभी तक
मैं भी अनोखा क़िस्सा तरतीब दे रहा हूँ

ज़र्रों का है ये तूफ़ाँ बे-चेहरगी ब-दामाँ
ज़र्रों से एक चेहरा तरतीब दे रहा हूँ

दुनिया के सारे रिश्ते बे-मअ'नी लग रहे हैं
ख़ालिक़ से अपना रिश्ता तरतीब दे रहा हूँ

पुर-पेच रास्तों पर चलता हुआ 'ज़फ़र' मैं
सीधा सा एक रस्ता तरतीब दे रहा हूँ


रचनाकार : ज़फ़र हमीदी
यह पृष्ठ 211 बार देखा गया है
×

अगली रचना

जब भी वो मुझ से मिला रोने लगा


पिछली रचना

अपने दिल-ए-मुज़्तर को बेताब ही रहने दो
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें