मनहूस श्रोता (कविता)

हास्य रस सुनके भी टस से न मस हुआ
सरस न लगी हो तो व्यंग्य ही तू कस दे
धन नहीं माँगता सुमन नहीं माँगता मैं,
नहीं चाहता हूँ मुझे यश का कलश दे,
गा गा के सुनाई मैंने तुझे कविताई भाई,
भूल हुई अब न सुनाऊँगा बकस दे
घूस-सा मुँह लिए हुए फूस-सा पड़ा हुआ है
अरे मनहूस एक बार तो तू हँस दे!


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