हरियाली के आँचल में
बसती चलती साँसें मेरी,
सुखद, शीतल समीर में
उड़ती जाती आशाएँ मेरी।
मनोहर पर्वत पहाड़ों में
बसता है मन प्राण मेरा,
बादलों के घने घेरों में
उड़ता पावन आँचल मेरा।
ना शहर की त्राहि-त्राहि
ना शहर का बेगाना-पन,
यहाँ हर कोई अपना है
मिलता हर-दम अपना-पन।
पहाड़ियों के बीच जब
दिनकर उदित होता है,
सुखद शीतल समीर बहती
मन मलयानिल होता है।
ठंडी-ठंडी धाराएँ बहती
सरोवर लबा-लब भर जाते हैं,
वन उपवन खिल खिल जाते
पक्षी स्वछंद विहार करते हैं।
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