मज़दूरों का दुर्भाग्य (कविता)

थे मजबूर परिवार पालने के वास्ते,
तय किया हज़ारों मील के रास्ते।
अजनबी शहर में थे अपरिचित अनजान,
अपनी मेहनत के सिवा ना थी कोई पहचान।
भटकते रहे इधर-उधर काम की तलाश में,
रातें कई बिताई खुले आसमान में।
मेहनत अधिक थी पर काम मिल गया,
खिल गया चेहरा मानो भाग्य का साथ मिल गया।
मिली मज़दूरी हाथ में तो ख़ुशी छा गई,
मानो बुझते हुए चिराग़ में रौशनी आ गई।

घर से आज आया है समाचार,
बेटे को बुख़ार, बनिये का उधार, बूढ़े पिताजी हैं बीमार।
कैसे हो आप क्या मिला कोई काम?
भरोसा है मुझको सबके दाता हैं राम।
भेज दिया हूँ जो मिली थी इस महीने की पगार
बचे जो मुन्ना और बाबू की दवा से चुका देना बनिए का कुछ उधार।
इस माह से मिल जाएगा मौक़ा ओवर टाईम करने को,
बन जाएगी उम्मीद घर की दशा सुधरने को।

अरे क्रूर विधाता ने ये कैसा खेल रचाया,
कोरोना महामारी का क़हर दुनियाँ पर ढाया।
सरपट दौड़ रही दुनियाँ पर पूर्णविराम लगाया,
ग़रीब मज़दूरों को बेबस लाचार बनाया।
अनिश्चित देशबन्दी की कठिन घड़ी थी,
बस ट्रेन दुकान मिलें सब बन्द पड़ी थी।
बार-बार सोचते क्या करूँ यहाँ निठल्ले रह कर,
चलें कुछ करें अपने ही घर पर चल कर।
बन्द हैं सब साधन क्या निकले इसका हल,
मैं मज़दूर चल सकता हूँ गंतव्य तक पैदल।
निकल पड़े पैदल रेलपथ से जल्द घर पहुँचने की आस में,
लम्बा सफ़र थक कर चूर हो गए वे राह में।
ट्रेन बन्द है सोचकर लेट गए सब रेलपथ पर,
विधाता को भी दया न आई मज़दूरों की दशा देख कर।
लेटते ही गहरी नींद में वे सो गए,
मौत बनकर ट्रेन आई सबके सब लाश हो गए।
व्यथित भूषण पूँछते देश में क्या है मज़दूर का मुक़ाम,
कब कौन करेगा उनके हित उचित इंतज़ाम।


लेखन तिथि : 9 मई, 2020
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