मेरा सावन सूखा सूखा (गीत)

विरह व्यथा की विकल रागिनी,
बजती अब अंतर्मन में।
कितनी आस लगा बैठे थे,
हम उससे इस सावन में।

बरस रहे हैं मेघा काले फिर भी मेरा मन मरुथल,
चलतीं शीतल मन्द हवाएँ जलता मेरा तन पल-पल।
सोचा था इस सावन में कुछ उससे मेरी बात बनेगी,
उसके नैनों के प्याले को पीकर मन की प्यास बुझेगी।
लगता है अब विरह वेदना,
लिखी हमारे जीवन में।
कितनी आस लगा बैठे थे
हम उससे इस सावन में।

पतझड़ को हम झेल चुके थे आस लगी थी सावन की,
शायद प्रेम कहानी कोई बन जाए मनभावन की।
लेकिन आशाओं की किरणे इस सावन में दिखी नही,
सजी हिना से नर्म हथेली भाग्य हमारे लिखी नही।
संदल सी ख़ुशबू महकेगी,
कब अपने घर आँगन में।
कितनी आस लगा बैठे थे,
हम उससे इस सावन में।

रिमझिम शीतल गिरे फुहारें, चमके चपला मतवाली,
नागिन के जैसे डसती हैं, सावन की रातें काली।
दादुर मोर पपीहा अपने, सप्त स्वरों में गाते हैं,
कजरी गीत मल्हारे मेरे, मन को बहुत लुभाते हैं।
वो कब राग सुनाए आकर,
मेरे मन के मधुबन में।
कितनी आस लगा बैठे थे,
हम उससे इस सावन में।


लेखन तिथि : 27 जुलाई, 2021
यह पृष्ठ 173 बार देखा गया है
×

अगली रचना

आवारा परदेशी


पिछली रचना

गाऊँ कैसे प्रेम तराने
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें