मेरे लब पर कोई दुआ ही नहीं,
इस करम की कुछ इंतिहा ही नहीं।
कश्ती-ए-ए'तिबार तोड़ के देख,
कि ख़ुदा भी है ना-ख़ुदा ही नहीं।
मेरी हस्ती गवाह है कि मुझे,
तू किसी वक़्त भूलता ही नहीं।
अब उसे ना-उम्मीद क्यूँ कहिए,
दिल को तौफ़ीक़-ए-मुद्दआ ही नहीं।
ग़म में लज़्ज़त कहाँ कि दिल न रहा,
हाए वो हसरत-आश्ना ही नहीं।
वही तू है वही तिरी महफ़िल,
एक 'फ़ानी'-ए-मुब्तला ही नहीं।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें