मेरे मन तेरे पागलपन को
कौन बुझाए तेरी ठंडी अगन को
दुनिया के मेले में, घूमे अकेले तू
काहे को यादों से खेले
ख़ुद से क्यूँ भागे रे, रातों को जागे रे
ख़ुशियाँ भी ग़म जैसे झेले
जागती आँखों में कैसे वो उतरे
नींदें तो दे रे सपन को
मेरे मन तेरे पागलपन को
रातों में चंदा है, दिन में है सूरज
हर सू उजालों के घेरे
आँखों की खाई में छुप के जो बैठे हैं
कटते नहीं वो अँधेरे
अपनी चलाता है, रोता है, गाता है
काहे सताए रे तन को
मेरे मन तेरे पागलपन को

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