मिरे बस में या तो या-रब वो सितम-शिआर होता (ग़ज़ल)

मिरे बस में या तो या-रब वो सितम-शिआर होता
ये न था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता

पस-ए-मर्ग काश यूँ ही मुझे वस्ल-ए-यार होता
वो सर-ए-मज़ार होता मैं तह-ए-मज़ार होता

तिरा मय-कदा सलामत तिरे ख़ुम की ख़ैर साक़ी
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता

मैं हूँ ना-मुराद ऐसा कि बिलक के यास रोती
कहीं पा के आसरा कुछ जो उमीद-वार होता

नहीं पूछता है मुझ को कोई फूल इस चमन में
दिल-ए-दाग़-दार होता तो गले का हार होता

वो मज़ा दिया तड़प ने कि ये आरज़ू है या-रब
मिरे दोनों पहलुओं में दिल-ए-बे-क़रार होता

दम-ए-नज़अ भी जो वो बुत मुझे आ के मुँह दिखाता
तो ख़ुदा के मुँह से इतना न मैं शर्मसार होता

न मलक सवाल करते न लहद फ़िशार देती
सर-ए-राह-ए-कू-ए-क़ातिल जो मिरा मज़ार होता

जो निगाह की थी ज़ालिम तो फिर आँख क्यूँ चुराई
वही तीर क्यूँ न मारा जो जिगर के पार होता

मैं ज़बाँ से तुम को सच्चा कहो लाख बार कह दूँ
इसे क्या करूँ कि दिल को नहीं ए'तिबार होता

मिरी ख़ाक भी लहद में न रही 'अमीर' बाक़ी
उन्हें मरने ही का अब तक नहीं ए'तिबार होता


रचनाकार : अमीर मीनाई
  • विषय : -  
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