नाम में क्या रखा है? (कविता)

फ़ोन पर एक अपरिचित-सी आवाज़ आई
कहा हैलो! आप कैसे हैं?
मैंने कहा ठीक हूँ,
आप कौन?
उन्होंने कहा वह ‘निर्भय’ बोल रहे हैं
‘जागरण’ में थे पिछले दिनों
इससे पहले कि मैं कुछ पूछता
बढ़ गई उनकी खाँसी

थोड़ा सँभले तो पूछने लगे—
कैसी है तबियत आपकी
मैंने कहा ठीक हूँ अब
हाँ! उन्होंने कहा सुना था,
पिछले दिनों बहुत बीमार रहें आप
पर ले नहीं सका आपका हाल।

मैं कुछ कहता पर वह ही बोल पड़े
‘जागरण’ में आप थे
तो मुलाक़ात हो जाती थी

अब यह नौकरी भी छूट गई
कलकत्ते-सा शहर और बच्चे दो
कहीं किसी अख़बार में आप कह देते
तो बात बन जाती
मैंने कहा आप शायद
मेरे नाम से धोखा खा गए
मैं वह नहीं
जो आप समझे अब तक
नाम ही भर है उनका मेरा एक-सा

दुखी आवाज़ में अफ़सोस के साथ वह बोले—
उफ़! आपको पहले ही बताना चाहिए था
और फिर बढ़ गई उनकी खाँसी
मैं माफ़ी माँगता
कि फ़ोन रख दिया उन्होंने
मैं सोचने लगा
आख़िर शेक्सपियर नें क्यों कहा था
नाम में क्या रखा है?


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