नदी की धारा (कविता)

जल ही जल निर्मल पावन
अखण्ड अलौकिक मन भावन
हे सरिता, तटिनी, तरंगिणी,
जीवनदायिनी निर्झरिणी।

उदगम अनन्त अद्भुत
संकरी बिखरी धाराएँ,
सम्मिलित हो प्रबल–
तय करती दिशाएँ,
सरल सतत-प्रवाहमयी–
सुन्दर-कल-कल, छल-छल,
जल ही जल निर्मल पावन!

उमंग भर उठे तरंग
निहारता-वितान हो उदार।
उतारती है! आरती निशीथ–
बयार संग झूमता कछार,
गति चंचल निश्च्छल अविरल
मधुर मनोरम शीतल दर्पण,
जल ही जल निर्मल पावन।

उतर उफनती गर्जती
सींचती भू-धरा निर्जीव,
हरियाली करवट लेती–
रंग हज़ारों भरें सजीव,
विहंग विचरण अति सुन्दर
पाट सपाट प्रकट आँचल,
जल ही जल निर्मल पावन!

अगम अथाह दृष्टिगत पुलक
हर्ष उल्हाष आभाष नित,
निष्ठा निहित निरंतर बेला,
धर्म कर्म स्नान चित,
निज रूप पापनाशिनि–
हे कूलंकषा!
है कोटि कोटि तुझे नमन!
जल ही जल निर्मल पावन।


रचनाकार : राजेश राजभर
लेखन तिथि : 22 जुलाई 2022
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