सुप्त जल—
जो कुनमुनाता था,
झकोरों के सहारे सर उठाता था,
देखता था अचानक सम्मुख अड़े गिरि को;
क्षुब्ध होता था,
थपेड़े मारता था,
फिर लजा कर
(हार कर शायद स्वयं से)
लौट जाता था;
शांत जल—
जो अपरिमित लघु-लघु प्रयत्नों की थकन से
चूर होता था
सरोवर के हृदय में दुबक कर
चुपचाप सोने के लिए मजबूर होता था
अंध जल—
जो निपट सीमाबद्ध मणिधर-सा
भू-विवर में रेंगता था मौन
बाहर के विपुल विस्तार में
निज को समर्पित, रिक्त करने से बहुत भयभीत
आज सहसा इस निमिष में
इस नई बरसात में
पा इन चतुर्दिक् के उमड़ते बादलों का
निर्झरों का
विपुल सोतों का
सरित का नीर
झंझावात में
करके विखंडित शैल का ध्रुव गर्व
सबको धो गया है
और भू का नग्न तन
नूतन तरलता से विमंडित हो गया है।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें