नई संस्कृति (कविता)

आसमान में बसा हुआ नगर
निर्वसन हवा को नींव में चुनवा कर,
आपस में टकराते, जूझते
मकान।

बँधे हुए कुत्तों का मुँह नोचते व्यवसायी
जूतों के तल्लों में सोना चिपकाए
कंधों पर लादे—
मसान।

बेतहाशा भागती हुई भीड़
अमर-बेलि की काली लतरों पर,
और दुहरे चुटीले अँधेरे में गुँथे हुए
पीली रोशनी के बियाबान।

ढेर-सा सवेरा—अलकतरे से पुती किवाड़ों की
फटी सनद में पिरोया-सा।
भीतर एक गाए गए मौसम, एक वेगातुर धर्म,
एक मर्यादित स्वार्थ की झूठी पहचान।

शिशिर के बूढ़े पर्दे के पीछे
ऋतुओं का एक ख़ाबगाह
सभी जगह कत्थक या गरबा की अनगिन मदमाती मुद्राएँ
और वसंत की ओस में नम एक सड़क का गुन-गुन गान।
फिर बहुत दिन बाद
नींव में मरी हुई
निर्वसन हवा...
टूटा हुआ नगर-कंकाल-आसमान।
अमर बेलि की काली लतरों पर
अँधेरी रोशनियों में उगते
जंगली पेड़ों की तरह
इंसान।


रचनाकार : दूधनाथ सिंह
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