नारी का शृंगार है
पति और उसकी संतति
जिनसे उसके जीवन में
रूप है, रस है, गंध है
पग-पग पर पुष्प और
पल-पल इन्द्रधनुषी रंग है
और उसके प्रेम में
सिमटा सारा संसार है
वही जगत का श्रेष्ठतम प्यार है
जिससे उसके हृदय में
संगीत गूँज उठता है
और वह थिरकने लगती है
उसमें एक नृत्यांगना
की कला उभर आती है
पर जब ये शृंगार
सजने के बजाय चूभने लगें
और घाव बनकर रिसने लगें
तब इन्हें त्याग कर
नारी को अपनी धरा और
आसमान चुन लेना चाहिए
अपने स्वप्नों को बुन लेना चाहिए
और अपना परिचय बता देना चाहिए
कि वह तुम बिन भी नाच सकती है
तुम बिन वह महक सकती है
उसे किसी मालकिन की ज़रूरत नहीं
वह ख़ुद सृजनहार है बंजर नहीं
वह रूप रस रंगों की
अनुपम उपहार है
धरा पर वह
हरी भरी बहार है
वह ईश्वर की अनूठी कृति है
जिसमें रची बसी सारी सृष्टि है।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें