निगाह-ए-साक़ी-ए-ना-मेहरबाँ ये क्या जाने (ग़ज़ल)

निगाह-ए-साक़ी-ए-ना-मेहरबाँ ये क्या जाने,
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने।

मिली जब उन से नज़र बस रहा था एक जहाँ,
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने।

हयात लग़्ज़िश-ए-पैहम का नाम है साक़ी,
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने।

तबस्सुमों ने निखारा है कुछ तो साक़ी के,
कुछ अहल-ए-ग़म के सँवारे हुए हैं मय-ख़ाने।

ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ,
चराग़ हो कि न हो जल-बुझेंगे परवाने।

फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए 'मजरूह',
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने।


यह पृष्ठ 247 बार देखा गया है
×

अगली रचना

उठाए जा उन के सितम और जिए जा


पिछली रचना

यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैं
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें