बहुत बाद में
गाढ़ा जाता है खेत के बीचोबीच
लेकिन
बहुत पहले
पड़ जाती है नींव इसकी
दिलों के बीच
जैसे दिलों की खाइयाँ
उभर आती हों
एक पत्थर की शक्ल में
फिर भी हमेशा याद दिलाता है यह
कभी सगे रहे थे
इसके दोनों ओर के हिस्सों के मालिक।
जब माँ कलेवा लेकर आई होगी
धान मड़ाई के दिनों
बैठकर इन्होंने
एक ही थाली में खाया होगा
एक ही गिलास से
खींचे होंगे छाछ के लंबे-लंबे घूँट
उससे पहले
एक साथ खेले-कूदे होंगे
एक साथ रोए होंगे
एक साथ हँसे
एक-सी ही धूप, हवा, पानी का
स्पर्श पाया होगा
किसी बात में तू-तू, मैं-मैं हुई होगी
लेकिन ज़्यादा देर तक
अबोले नहीं रह पाए होंगे
ख़ूब रोए होंगे उसके बाद
गले मिलते हुए
एक साथ गए होंगे
किसी बाहरी से मुक़ाबला करने।
क्या कम हैं ये यादें
इस पत्थर को उखाड़ फेंकने के लिए?
जब गिराई जा सकती हैं बड़ी-बड़ी दीवारें
यह तो एक पत्थर मात्र है।
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